वैश्विक महामारी के इस कोरोनो-काल में एक अदृश्य विषाणु ने सारी इंसानियत को नए तरह से सोचने पर मजबूर कर दिया है। जैसे- भगवान कहां हैं? और दुनिया की वास्तविकता का मूल आध्यात्म क्या वाकई यही है?
बड़े-बड़े ऑफिस, भव्य इमारतें, अनोखी वास्तुकला, आलिशान इंटीरियर, हाइएंड और लेटेस्ट इक्यूपमेंट्स, हाइटेक गैजेट्स, मॉडर्न टेक्नोलॉजी, एडवांस्ड कनेक्टिविटी, ऑफिस की प्राइम लोकेशन, अंड-शंड सॉफ्टवेयर्स आदि बड़ी-बड़ी चीजें। ब्रांड वैल्यू, टर्नओवर, मार्केट वेल्यू और ना जाने ऐसी ही कित्ती बड़ी-बड़ी बातें। जिनपर पूरी दुनिया की कंपनियां अहं भरती थीं इस कोरोना-काल में बौनी साबित हो गई। ऐसे समय में कंपनियों को शायद यह आत्मसात हो गया होगा कि उपरोक्त तमाम चीजें उसके इंप्लॉइ के बिना बेकार है। या यूं कहें कि एक इंसान ही किसी कंपनी या संस्थान आदि का सबसे वेल्यूऐबल असेट है। उसके आगे ऑफिस की आधुनिकता बौनी है। दरअसल, एक इंसान या इंप्लॉइ ही किसी कंपनी को चलाता है। उपरवाले ये फीचर्स तो उस इंप्लॉइ के लिए टूलमात्र है। सबसे बड़ा हार्डवेयर इंसान है और उसका दिमाग सबसे बड़ा सॉफ्टवेयर।
वहीं, इंसान और इंप्लॉइ को ही कोरोना-काल में यह अहसास हो गया है कि वह जिस काम-धंधे या नौकरी से भागता या मन चुराता था, दरअसल दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। पर्सनल लाइफ और प्रफेशनल लाइफ एक तरह से एक-दूसरे के पूरक व उत्प्रेरक भी हैं। हालांकि, किसी कर्मचारी के लिए नौकरी वास्तविक रूप में उतनी भी ज्यादा जरूरी नहीं है। कंपनी आप के बिना और आप कंपनी के बिना भी चल सकते हैं। क्योंकि ऑफिस के ये चोचले, हेरारकी, क्यूबिकल सिस्टम, कॉर्पोरेट कल्चर, महंगा खान-पान, रहन-सहन ड्रेसअप, हाइफाइ पोस्ट्स, गैजेट, हमारे मोबाइल से लेकर कपड़े व जूते तक सिर्फ दुनियादारी की मोह-माहा और दिखावा है। असल में तो उन कपड़ों के अंदर एक नंगा इंसान मूल रूप से लगभग एक सा ही है। कोरोना-काल में सभी अपने घर में बॉक्सर, स्लीपर चप्पल, पजामा या उससे भी कुछ कम पहने हुए, एक लैपटॉप/डेस्कटॉप और एक मोबाइल फोन के जरिए ही काम कर रहे हैं।
क्योंकि कोरोना-काल में ज्ञान तो परिस्थिति, अवसर और उपलब्धता की विषय-वस्तु बनकर रह गया है। हां-हां, आप 50 साल पहले अपने नागरिक को चांद से टहलाकर सकुशल धरती पर बचा लाए होंगे। इसलिए जरूरी नहीं कि आप कोरोना-काल में पृथ्वी पर, अपने ही देश में अपने 50 हजार नागरिकों की जान बचा सकते हैं। महाशक्ति और महाधनी होना समय और काल के आगे छोटा साबित हो जाता है। क्योंकि शेयर मार्केट, सेंसेक्स, निफ्टी आदि की वैल्यू पतली है। वहीं, पेट्रोलियम से ज्यादा पीने के पानी की वैल्यू हो गई है। कीमती धातु से कहीं कीमती किसी इंसान की भूख हो गई है। दरअसल, इस मायावी दुनिया में असल में किसी चीज के वैल्यू है तो वो है इंसान की जान, रोटी और मकान। आपका घर/जमीन, मोहल्ला/गांव/कस्बा/शहर आपके लिए सबसे जरूरी और सुरक्षित स्थान है। इसलिए जमीन से हमेशा जुड़े रहिए। और उन प्रियजनों से जुड़े रहिए जो आपके जीवन के लिए जल की तरह ही महत्वपूर्ण हैं। यह सब नारी-नर ही आपके नारायण हैं। चाहे वह आपके माता-पिता, पति-पत्नि, बेटा-बेटी या मित्र हों। पैदा होने से मृत्यु तक आपका जीवन मूलतः इन्हीं कुछ प्रियजनों के तानों-बानों से ही बुना होता है। बाकी लोग तो दुनियादारी के बंधेज और कढ़ाई-बुनाई मात्र है। कोरोना-काल में मृत्यु के बाद यह अनुभूति और सुदृढ़ हुई कि मृत्यु के बाद शोक सभा, अंतिम संस्कार और तमाम कर्मकांड औपचारिकता मात्र है। सात्विकता तो जीवन भर कर्म और हमारी आत्मा का व्यवहार है जो शाश्वत या अनश्वर है।
हर नर नारायण है फिर चाहे वह मंत्री हो या सब्जीवाले भइया। आपके राज्य में मुख्यमंत्री या मंत्री हो या ना हो काम चल जाएगा। लेकिन कामवाली बाई, मेड, इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर, कारपेंटर, गार्ड, सब्जीवाले, किराना वाले, दूधवाले, पेपरवाले और क्लीनिंगवाले भइया तक हर इंसान का काम इस दुनिया में महत्वपूर्ण है। उतना ही जितना कलेक्टर का उसकी जगह जरूरी है। जैसे पुलिस के प्रति हमारे मन में सामान्यतः कृतज्ञतापूर्ण व आदर का भाव कम ही आता था। लेकिन इस कोरोना-काल में वे मानो न्याय के देवता शनि के पृथ्वी पर देवदूत बनकर सामने आए हैं। मेरा मानना है कि पुलिस को उतना ही ‘भगवान’ मानना चाहिए जितना कि डॉक्टर्स को माना जाता है। दरअसल, डॉक्टर्स से भी कहीं ऊपर माना जाना चाहिए क्योंकि मेडिकल फील्ड में व्हाइट कॉलर चोखी कमाई ज्यादा है। पुलिस में संघर्ष, मेहनत और जिम्मेदारी ज्यादा है। जान तो दोनों ही बचाते हैं।
कोरोना काल में ईश्वर ने हमें आत्मसात करवा दिया कि वे किसी मंदिर, चर्च, मस्जिद, गुरुद्वारा या अन्य धार्मिक स्थलों पर नहीं बल्कि सबसे ज्यादा हम सब के हृदय में बसता है। उन्हें ढूंढ़ने के लिए दूर-दराज के धर्मस्थलों पर जाने की नितांत आवश्यकता नहीं है। आपका घर और मन ही ईश्वर का वास्तविक धर्मस्थल है। और हां उन आधुनिक देशों के इंसानों का वह दंभ भी अब संक्रमित हो गया होगा जो हजारों प्रकाशवर्ष दूर किसी गैलेक्सी की पहली फोटो खींच लेने या किसी ग्रह पर पहुंच जाने पर चौड़े होते आए हैं। अपनी विलासिता के गुरुर में गरीब या विकासशील देशों पर हंसते आए हैं। आज कोरोना-काल में हमें यह भी आभास हुआ है कि अगर हम अपने जरूरतों, भौतिकता, लालसा और मोह-माया को सीमित कर लें, तो बेहद कम संसाधनों के साथ हम दुनियादारी के पचड़ों में उलझे बिना भी भी आराम से साकार जीवन जी सकते हैं। वैश्विक महामारी के इस कोरोनो-काल में एक अदृश्य विषाणु ने सारी इंसानियत को नए तरह से सोचने पर मजबूर कर दिया है कि दुनिया की वास्तविकता का मूल आध्यात्म क्या वाकई यही है?
अमित पाठे, (लेखक पत्रकार व ग्राफिक डिजाइनर हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया, नवभारत टाइम्स, नवदुनिया, दैनिक भास्कर, पत्रिका और पीपुल्स समाचार में बतौर पत्रकार काम कर चुके हैं।)