भारत के विपक्ष द्वारा शासित चार राज्यों — West Bengal, Karnataka, Telangana और Kerala — में कुल 33 विधानसभाओं द्वारा पारित हुए बिल अब तक राज्यपालों या राष्ट्रपति की मंजूरी का इंतज़ार कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त, Tamil Nadu में पहले से ही व्याप्त दस बिलों का मामला भी सामने है, जिन पर Supreme Court of India (एससी) ने सीधे हस्तक्षेप किया है। इस स्थिति ने संवैधानिक व्यवस्था, केन्द्र-राज्य संबंध तथा लोकतांत्रिक विधानप्रक्रिया को लेकर तीव्र चर्चा को जन्म दिया है।
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क्या हो रहा है?
इन चार राज्यों में विपक्षी-शासित सरकारें विभिन्न विधेयक विधानसभा में पारित कर चुकी हैं, लेकिन राज्यपाल के पास उन्हें मंजूरी के लिए भेजे जाने के बाद या तो वे लंबे समय से अनसुलझे पड़े हैं, या फिर राज्यपाल ने उसे राष्ट्रपति के पास भेजने का निर्णय लिया है। इस प्रकार, विधेयक राज्यपाल/राष्ट्रपति के स्तर पर लंबित हैं।
सुप्रीम कोर्ट की स्थिति और टाइमलाइन विवाद
2016 में गृह मंत्रालय द्वारा जारी दिशा-निर्देशों में राज्य विधेयकों के राष्ट्रपति को आरक्षित करने की प्रक्रिया में तीन महीने की समयसीमा की बात कही गई थी। बावजूद इसके, संविधान (विशेष रूप से अनुच्छेद 200 एवं 201) में ऐसी कोई समय-सीमा स्पष्ट नहीं है। इस कारण सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि यदि राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल बिना तर्क दिए लंबित रखे हों, तो यह “मनमाना” माना जा सकता है।
33 बल्कि 43 (उपर्युक्त 4 राज्यों के 33 + तमिलनाडु के 10) विधेयक लंबित होना सिर्फ संख्या-मात्र नहीं है, बल्कि यह उस संवैधानिक समीकरण को दर्शाता है जहाँ लोकतांत्रिक विधान-प्रक्रिया, राज्यपाल-राष्ट्रपति-निगरानी और न्यायिक जवाबदेही का संयोजन जटिल रूप ले रहा है। यदि समय पर निर्णय नहीं लिए गए, तो यह सिर्फ एक विधेयक-मुद्दा नहीं रहेगा, बल्कि संवैधानिक राज-संपर्क, राज्य-शासन व न्यायपालिका के बीच संतुलन का प्रश्न बन जाएगा। इस प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के बाद आगे का निर्णय इस दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है।
