इस कोरोना (corona) काल में बहुत सारे लोग आज खुद से सवाल पूछ रहे हैं। जिया जाए तो कैसे ? चार दीवारी में रहा जाए तो कैसे? साहब मैं तो जिंदगी की रफ्तार का एक मुसाफिर था। मुझे कहां आदत थी कैदी बनने की? मगर मुझे अब एहसास हुआ कि मैं खुद को क्या मानता था। इस कुदरत को तो मैं अपनी जागीर समझता था। पर देखो इस विधाता का खेल अब मैं कुछ भी नहीं बस एक कमरे का कैदी बन कर रह गया। कुदरत ने बहुत कुछ दिया मगर बदले में हमने क्या दिया? इतना तो समझ आ चुका है कि मैं अपनी सीमा में रहूं और याद रखूं कि मनुष्य तब तक जिंदा है जब तक प्रकृति स्वस्थ है।
ये बात कुदरत इंसानों से चीख चीख कर कह रही है कि मुझको औऱ मजबूर मत करो वरना परिणाम और भयावह होंगे। कभी सोचा है तूने जानवरों के घर जला कर बड़े आशियाने बनाए। और अब इंसाफ मांग रहे हैं कि मुझसे गुनाह क्या हुआ ? अरे बेरहमो मेरा घर जला कर तूने अपनी इच्छाएं पूरी की। बस उन्हीं बेजुबानों को इंसाफ दिलाने के लिए तू आज घर में बैठा कैद है। कभी सोचना कि जानवरों को कैसा महसूस होता होगा। जब उन्हें तुम कैद करते हो, सोचते हो कि सारी की सारी आजादी सिर्फ इंसानों के लिए है। वैसे तो नदी को इंसान मां कहता है मगर आज वो जल की रानी यानी मछली भी सांस लेने को तरस रही है। इंसान होकर कई जुल्म ढाए हैं, पेड़-पौधों, जानवरों, पक्षियों के साथ बड़ी नाइंसाफी की l मगर आज कुदरत के कहर का सामना कर रहा है। जब बात जान पर आई तो याद आया कि मैं तो महज एक इंसान हूं, जो चंद सांसों का मोहताज हो गया हूं। शायद आईना दिखाने ये खूनी वायरस आया है। तो कभी-कभी धरती कांप रही है। तो तूफान भी अपना कहर बरपा रहा है।
अब तक शायद इंसानों की बस्तियों में ये खबर घर कर गई होगी कि उसने कितना बड़ा अनर्थ कर दिया है। इस कायनात पर सिर्फ अपना अधिकार समझकर बेजुबानों की आजादी पर ग्रहण लगा दिया। यही वजह है कि आज पूरा विश्व कयामत की आहट को महसूस कर रहा है।
लेखक : निधी परमार