हाल ही में सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार ने डिजिटल मीडिया पर प्रसारित होने वाली सामग्री की निगरानी हेतु नियमावली बनाई है । सीधे तौर पर कहा जाए तो अब ऑनलाइन सामग्री पर भी सरकार का पहरा होना तय है । लंबे समय से सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयास अब जमीनी हकीकत में बदल गए हैं । अङ्ग्रेज़ी हुकूमत से लेकर 2021 तक सिनेमा माध्यम में फिल्म सेंसरशिप जिस तरह से प्रतिपादित होती रही है उस पर सवाल होते रहे हैं । और होने भी चाहिये । फ़िल्म सेन्सरशिप को लेकर देश भर में माहौल हमेशा से गरम रहा है । 1918 में अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा फ़िल्मों की सामग्री को परीक्षण करने के इरादे से आरम्भ की गई नीति आज 21वीं सदी में ओटीटी प्लेटफ़ोर्म के ज़माने में भी प्रासंगिक है । एक दर्शक फ़िल्म में क्या देखे ? इसे तय करने की एक संस्था आज़ाद भारत में भी बनाई गई या कहे अङ्ग्रेज़ी नियमों को ही पॉलिस करके एक बोर्ड का गठन किया जिसे केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड का नाम दिया गया । इसी क्रम में कई कमेटियाँ बनी जिसने इस बोर्ड के क्रियान्वयन और तरीक़ों में बदलाव लाने के लिए ज़रूरी सुझाव भी दिए । यह सब कितना सफल हुआ और क्या बदलाव हुए पुस्तक फ़िल्म सेन्सरशिप के सौ वर्ष बताती है ।
डॉ. मनीष जैसल द्वारा लिखी गई यह किताब संभवत: हिंदी में इस विषय पर लिखी गई पहली किताब है जो फ़िल्म सेन्सरशिप के सौ वर्षों का पूरा लेखा जोखा पेश करती है । दुनियाँ भर में फ़िल्म सेन्सरशिप को लेकर बने मॉडल में भारत में कौन सा सबसे उपर्युक्त होना चाहिए पुस्तक में दिए सुझावों से जाना और समझा जा सकता है । कभी पद्मावती जैसी फ़िल्मों को लेकर विवाद होता है तो कभी उड़ता पंजाब के सीन कट हो जाने से मीडिया में हेडलाइन बनने लगती है । लेकिन इसके पीछे के तर्कों और इससे बचाव को लेकर सरकारें क्या क्या उपाय सोचती और उसे करने का प्रयास करती है पुस्तक कई उदाहरणों के साथ सामने लाती है । देश के शिक्षाविद , फ़िल्मकार, पत्रकारों, लेखकों आदि से किए गए साक्षात्कार फ़िल्म सेन्सरशिप के भविष्य को लेकर एक राह दिखते हैं । जिन पर अमल किए जयें तो संभवत: इस दिशा में सकारात्मक कार्य हो सकता है ।
महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से फ़िल्म स्टडीज़ में पीएचडी डॉ जैसल ने काशीपुर के ज्ञानार्थी मीडिया कोलेज में भी अपनी सेवाएँ बतौर सहायक प्रोफ़ेसर और मीडिया प्रभारी दे चुके है | सीएसआरयू हरियाणा में सेवाएँ देने बाद वर्तमान में नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरी नई दिल्ली के सहयोग से पूर्वोत्तर राज्यों के सिनेमा पर पुस्तक लिख रहे डॉ मनीष ने मशहूर फ़िल्मकार मुज़फ़्फ़र अली पर भी पुस्तक लिखी है । जो काफ़ी चर्चित रही । बुक बजुका प्रकाशन कानपुर द्वारा इनकी तीनों किताबें प्रकाशित हुई हैं । अभिव्यक्ति के प्रमुख माध्यमों में नियंत्रण के साथ साथ अमेरिका यूरोप और एशिया के प्रमुख देशों की फिल्म सेंसरशिप नीति और क्रियान्वयन के साथ भारत में लागू सौ वर्षों से अधिक की फिल्म सेंसरशिप नीति का अध्ययन इस पुस्तक में मिलता है ।
फिल्मों से जुड़े विवादों और उनकी न्यायिक प्रक्रिया का अध्ययन पुस्तक में करने के साथ साथ लेखक ने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर जिस तारह की फिल्म सेंसरशिप नीति की तैयारी की जा सकती है और की जाएगी इस पर भी लेखक ने अपनी परिकल्पना व्यक्त की है । बेहतर सेंसरशिप मॉडल को सुझाने के साथ कैसे फिल्म सेंसरशिप के विवादों को कम किया जाए पुस्तक के उपसंहार में पढ़ा जा सकता है । प्रमुख फ़िल्मकारों और पत्रकारों से संवाद पुस्तक को और भी तथ्य परक बनाती है । फ़िल्म समीक्षक, लेखक और स्वतंत्र पत्रकार की भूमिका का बराबर निर्वहन कर रहे पुस्तक के लेखक डॉ मनीष जैसल ने सभी फ़िल्म रसिक, फ़िल्मी दर्शकों और पाठकों से पुस्तक को पढ़ने और उस पर टिप्पणी की अपील की है । वर्तमान में लेखक मंदसौर विश्वविद्यालय में जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर और विभाग प्रमुख हैं । फ़िल्म मेकिंग, फ़ोटोग्राफ़ी , इलेक्ट्रोनिक मीडिया जैसे टेक्निकल विषय पर विशेष रुचि भी है । स्क्रीन राईटर एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया, आइचौकडॉटइन, अमर उजाला, हिंदुस्तान, भास्कर, न्यूजलांड्री जैसे पोर्टल में लगातार इनकी फ़िल्म समीक्षाए और लेख प्रकाशित होते रहते हैं ।