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आज हम बात करेंगे एक ऐसी आस्था की, जो भारतीय संस्कृति की रीढ़ है। मां शक्ति की उपासना। हिंदू धर्म में मां शक्ति का स्थान सर्वोच्च है। कहते हैं, जब-जब दुनिया में संकट आया, मां ने अपने अलग-अलग रूपों में अवतार लिया। लेकिन आज हम बात करेंगे उन चार आदि शक्तिपीठों की, जिनके दर्शन से 51 शक्तिपीठों का पुण्य मिलता है। सवाल यह है—क्या यह सिर्फ आस्था की बात है, या इसके पीछे कोई गहरी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपरा छिपी है?

पौराणिक कथाओं में कहा जाता है कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपने प्राण त्यागे, तो भगवान शिव उनके शव को लेकर तांडव करने लगे। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खंडित किया। जहां-जहां सती के अंग और आभूषण गिरे, वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में 51 शक्तिपीठ हैं। कुछ जगहों पर 52 का भी जिक्र मिलता है। हर शक्तिपीठ की अपनी महिमा है, अपनी कहानी है। लेकिन इनमें से चार—कामाख्या, तारापीठ, बिमला पीठ और हिंगलाज माता—ऐसे हैं, जिनके दर्शन को 51 शक्तिपीठों के बराबर माना जाता है। क्यों? क्या है इनका महत्व? आइए, इसकी पड़ताल करते हैं।

पहले बात कामाख्या की। असम के गुवाहाटी में स्थित कामाख्या मंदिर को मां शक्ति का सर्वोच्च केंद्र माना जाता है। कहते हैं, यहां मां सती का योनि अंग गिरा था। यह मंदिर तंत्र साधना का भी केंद्र है। हर साल यहां अंबुबाची मेला लगता है, जब मां रजस्वला होती हैं। लाखों श्रद्धालु आते हैं, लेकिन सवाल उठता है—क्या यह सिर्फ पूजा का स्थान है, या यह भारतीय समाज में स्त्री शक्ति के सम्मान का प्रतीक भी है? सोचिए, एक ऐसी जगह जहां स्त्रीत्व को पूजा जाता है, वहां आज भी औरतों की स्थिति पर कितने सवाल उठते हैं।

फिर आते हैं तारापीठ। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में मां तारा का यह मंदिर। कहते हैं, यहां मां सती का नेत्र गिरा था। तारापीठ सिर्फ भक्तों का केंद्र नहीं, बल्कि तंत्र और साधना का भी गढ़ है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि ये मंदिर सिर्फ धार्मिक स्थल क्यों नहीं हैं? ये हमारी सांस्कृतिक धरोहर के प्रतीक हैं। ये हमें याद दिलाते हैं कि शक्ति की उपासना सिर्फ मूर्ति पूजा नहीं, बल्कि जीवन को ऊर्जा देने का एक तरीका है।

बिमला पीठ, ओडिशा के पुरी में, भगवान जगन्नाथ के मंदिर परिसर में स्थित है। यह एकमात्र शक्तिपीठ है जो किसी अन्य बड़े मंदिर के भीतर है। कहते हैं, यहां मां सती का पाद-अंग गिरा था। और फिर हिंगलाज माता, जो आज पाकिस्तान के बलूचिस्तान में है। यह शक्तिपीठ भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। यहां मां सती का ब्रह्मरंध्र गिरा था। आज भी हिंगलाज की यात्रा करने वाले श्रद्धालु बताते हैं कि वहां की ऊर्जा कुछ और ही है। लेकिन सवाल यह है—जब हम इन शक्तिपीठों की बात करते हैं, तो क्या हम सिर्फ पूजा की बात कर रहे हैं, या उस सांस्कृतिक धागे की, जो हमें एक-दूसरे से जोड़ता है?

धार्मिक ग्रंथ कहते हैं कि इन चार आदि शक्तिपीठों के दर्शन से 51 शक्तिपीठों का पुण्य मिलता है। लेकिन क्या यह सिर्फ पुण्य की बात है? या यह हमें यह समझाने की कोशिश है कि शक्ति हर जगह है—कामाख्या के तंत्र में, तारापीठ की साधना में, बिमला की भक्ति में, और हिंगलाज की आस्था में। शायद यह हमें याद दिलाता है कि शक्ति सिर्फ मंदिरों में नहीं, बल्कि हमारे भीतर भी है।

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