दिल्ली। खबरों की चकाचौंध और कैमरों की चमक में जो छूट जाता है, वो हम देखते हैं। और आज की सबसे चमकदार खबर श्रीलंका से आई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘मित्र विभूषण’ से नवाज़ा गया है। एक पदक… लेकिन सिर्फ धातु का नहीं, एक संदेश है। एक प्रतीक है… कि पड़ोस की राजनीति सिर्फ सीमा पर नहीं होती, दिलों के बीच भी होती है।
यह कोई मामूली मेडल नहीं है। इसे ‘धर्म चक्र’ कहा गया है। सुनने में शायद आध्यात्मिक लगे, मगर इसकी राजनीति भी उतनी ही गहरी है। इसमें नौ रत्न हैं — जैसे भारत-श्रीलंका रिश्तों के नौ रूप हों। इसे कमल की पंखुड़ियों में सजाया गया है… अब कमल का मतलब क्या निकाला जाए, यह आप समझदार लोग बेहतर जानते हैं।
प्रधानमंत्री ने इसे 140 करोड़ भारतीयों का सम्मान बताया। सही भी है। जब कोई विदेशी देश भारत के प्रधानमंत्री को सम्मान देता है, तो वह देश दरअसल भारत की जनता की लोकतांत्रिक ताकत को सलाम करता है। और यहीं पर सवाल उठता है — क्या हम उस लोकतांत्रिक ताकत को भीतर से भी उतना ही सम्मान दे रहे हैं? हमें आत्म चिंतन भी करना चाहिए।
प्रधानमंत्री मोदी ने श्रीलंका को ‘पड़ोसी ही नहीं, पारंपरिक मित्र’ कहा। ये शब्द राजनयिक होते हुए भी दिल से निकले लगते हैं। उन्होंने कहा भारत श्रीलंका की आर्थिक मदद करेगा।
श्रीलंका के लोगों के धैर्य और साहस की तारीफ करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि श्रीलंका फिर से प्रगति के पथ पर लौट रहा है। इस वाक्य में उम्मीद है, भरोसा है — और साथ ही यह याद दिलाता है कि जो देश आर्थिक संकट में डूबा हो, उसे कर्ज़ नहीं, साथ चाहिए। क्या भारत वह साथ दे पाएगा?
‘मित्र विभूषण’ के पीछे की कहानी एक रिश्ते की कहानी है — जिसमें बौद्ध विरासत है, रामायण है, तमिल इतिहास है और समुद्र की लहरों में बंधी अनकही कड़ियाँ हैं। सवाल सिर्फ यह नहीं है कि यह पदक मिला, सवाल यह है कि क्या हम इस पदक की भावना को ज़मीन पर उतार पाएंगे?