पोला का त्योहार वैसे तो प्रमुख रूप से महाराष्ट्र में मनाया जाता है। तो वहीं राज्य से लगे आसपास के राज्यों की सीमाई जिलों में भी बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस त्यौहार को कहीं पोरा, पोला मोठा, तनहा पोला, बैल पोला आदि के नाम से जाना जाता है। वहीं तिथि के अनुसार इस त्योहार को पिठोरी अमावस्या के नाम से भी जानते हैं। इस दिन बैलों की पूजा की जाती है। साथ ही बच्चों के लिए मिट्टी का या लकड़ी का घोड़ा तैयार किया जाता है। बच्चे उस घोड़े के साथ घर-घर जाकर गिफ्ट और पैसे लेकर आते हैं। 90 के दशक के आसपास या उससे पहले जन्में लोग इन त्योहारों के साथ खुद को जुड़ा हुआ पाते हैं। दरअसल इस दौर के लोगों ने उन त्योहारों के जिया है उस दौर में तकनीकि का उतना बोलबाला नहीं था यही वजह थी कि बच्चे इन सारी चीजों के साथ जुड़कर त्योहारों को खूब एंजॉय करते थे।
छिंदवाड़ा अंचल में पोले के एक दिन पहले से तैयारियां
वैसे तो अलग अलग जगह पर इस त्योहार को लोग अपने – तरीके से मनाते हैं। स्थान के साथ मान्यताएं भी अलग-अलग स्वरूप में दिखाई देती है, मगर उद्देश्य एक ही होता है पशुधन यानी बैलों की पूजा। पोले के ठीक एक दिन पहले से इस त्योहार की तैयारियां शुरू हो जाती है। छिंदवाड़ा जिले में पोले को लेकर अलग ही क्रेज देखने को मिलता है यहां एक दिन पहले से ही पर्व की तैयारियां होने लगती है। इस दिन को ग्रामीण खारमारनी बोलते हैं दरअसल इस दिन बैलों को किसी जलाशय में ले जाकर स्नान कराया जाता है। जिसके पास जैसी सुविधा होती है उस तरीके से लोग बैलों को स्नान कराते हैं। उसके बाद उनको भरपेट भोजन कराने के बाद हल्दी व सरसो के तेल से पूरे शरीर की मालिश की जाती है। इस दिन भी बैलों से किसी प्रकार का काम नहीं लिया जाता है। सिर्फ और सिर्फ आराम करने दिया जाता है।
पोले के पहले रात्रि में बनते हैं पकवान
पोले के एक दिन पहले वाली रात बेहद खास होती है क्योंकि इस दिन बैलों के लिए तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। घर की महिलाएं गुजिया, ठेठरा, पापड़ी, खिचड़ा इत्यादि भव्य और दिव्य व्यंजन बनाती हैं। इन पकवानों को खास तौर पर बैलों के लिए तैयार किया जाता है।
पोले के दिन बैलों का श्रृंगार
पोले के दिन आमतौर पर ग्रामीण इलाकों में तो बच्चों की भी छुट्टी हो जाती है और बच्चे घऱ आकर अपने पिता व परिजन के साथ बैलों को सजाते हैं। साज सजावट के लिए कई पारंपरिक चीजों का इस्तेमाल करते हैं जैसे – झूल या झूलर या झालर जो बैलों की पीठ पर कोई चादरनुमा होती है। इसके अलावा बैलों के गले की घंटी, सींगों में बेगड़ जो रंग बिरंगे कागज या पॉलिथीन की होती है। इसके अलावा गुब्बारे और अब तो सजावट के नए-नए आइटम बाजार में आ चुके हैं जिनका इस्तेमाल भी साज सज्जा के लिए किया जाता है। फिर गांव की किसी सार्वजनिक जगह, मैदान या ग्राउंड में पूरे इलाके के बैलों की जोड़ी लेकर किसान पहुंचता है। ये स्थान कोई देवस्थान के आसपास भी हो सकता है जहां किसान पूजन के बाद वहां आयोजन में शामिल होता है। जहां पोला उत्सव मनाया जाता है वहां पहले से रस्सी में आम के पत्तों की तोरण बांधी जाती है उसी के नीचे किसान अपने बैलों को लेकर खड़ा होता है। अंतिम किसान का भी इंतजार होता है। जब सभी किसान आ जाते हैं फिर लोकगीत या शंकर भगवान की स्तुति की जाती है वो किसी राग, लय में हो सकती है हालाकि बदलते समय के साथ अब वो लोग भी धीरे-धीरे हमारे बीच से विलुप्त हो रहे हैं।
जब गायन हो जाता है तो फिर पटाखा या बारूद बम फोड़कर आवाज की जाती है जिससे बैलों की जोड़ी उत्साह में आ जाती है औऱ उत्साह से दौड़ लगाती है। इस दौरान जो तोरण होती है उसको लूटने की भी होड़ मचती है। किसान बैलों को संभालते हुए तोरण भी लूटता है। कहा जाता है कि तोरण का छोड़ा हिस्सा भी अगर घर लाया जाता है औऱ उसे घर के किसी हिस्से में बांध दिया जाता है तो वो बेहद शुभ माना जाता है। इस तरह से बैलों लेकर भी किसान घर पहुंचता है औऱ फिर दिव्य पकवान खिलाए जाते हैं। पकवानों के साथ बैलों को पोथी की भाजी भी खिलाई जाती है। और फिर पान का बीड़ा बनाकर भी खिलाया जाता है। कुल मिलाकर बैलों की इस दिन बल्ले – बल्ले रहती है।
पोला पर्व को मनाने का कारण
जब धरती पर कृष्ण जी के अवतार के रूप में भगवान विष्णु धरती पर आए तो उनका जन्म जन्माष्टमी के दिन हुआ. इस बारे में जब कंस को पता चला तो उसने श्री कृष्ण को मारने के लिए कई योजनाएं बनाईं और अनेकों असुरों को भेजा. इन्हीं असुरों में से एक था पोलासुर. श्री कृष्ण ने अपनी लीलाओं से राक्षस पोलासुर का वध कर दिया. यही कारण है कि इस दिन को पोला कहा जाने लगा. चुकि श्री कृष्ण ने भाद्रपद की अमावस्या तिथि के दिन पोलासुर का वध किया था इसलिए पोला पर्व मनाया जाता है.