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छत्तीसगढ़ को देश में “धान का कटोरा” कहा जाता है और यह उपाधि केवल इसके उत्पादन के आंकड़ों के कारण नहीं, बल्कि यहां की विशिष्ट और पारंपरिक धान की खुशबूदार किस्मों के कारण भी है। लेकिन आधुनिक कृषि तकनीकों, अधिक उपज देने वाली किस्मों और बाजार आधारित खेती के चलते पिछले कुछ दशकों में इन पारंपरिक किस्मों का अस्तित्व संकट में आ गया था।

“धान का कटोरा इसके उत्पादन के आंकड़ों के कारण नहीं, बल्कि यहां की विशिष्ट और पारंपरिक धान की खुशबूदार किस्मों के कारण भी है। कृषि तकनीकों, अधिक उपज देने वाली किस्मों और बाजार आधारित खेती के चलते पिछले कुछ दशकों में इन पारंपरिक किस्मों का अस्तित्व संकट में आ गया था।

अब एक बार फिर उम्मीद की किरण जगी है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (IGKV) के वैज्ञानिकों ने पारंपरिक और विलुप्त हो रही इन सुगंधित किस्मों को फिर से जीवित करने की दिशा में एक बड़ी पहल की है। विश्वविद्यालय के प्लांट ब्रीडिंग विभाग के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. सुनील कुमार नायर के नेतृत्व में यह कार्य योजनाबद्ध तरीके से शुरू किया गया है।

लेकिन हाइब्रिड किस्मों के प्रचार और तेज़ी से बदलते कृषि रुझानों के कारण इनका उत्पादन घटता गया और यह किस्में लगभग गुमनामी में चली गईं। इसे देखते हुए IGKV ने 23,250 पारंपरिक जनजातीय धान किस्मों का विस्तृत मूल्यांकन किया और उनमें से उच्च गुणवत्ता, बेहतर स्वाद और सुगंध की किस्मों का चयन किया गया।

इन प्रयासों के तहत ‘बासाभोग सलेक्शन-1’, ‘तरुण भोग सलेक्शन-1’, और ‘विष्णु भोग सलेक्शन-1’ जैसी चयनित किस्मों को फिर से सीड चेन (बीज श्रृंखला) में शामिल किया गया है। इन किस्मों को प्रजनन और उत्पादन के लिए चयनित किसानों को वितरित किया गया है, ताकि ये फिर से खेतों में लहलहा सकें।

डॉ. नायर के अनुसार, इन किस्मों की सबसे बड़ी खासियत उनकी “सुगंध, मुलायम बनावट और स्वाद” है। मुंह में रखते ही घुल जाने वाली बनावट और इनकी विशिष्ट खुशबू इन्हें बाजार में प्रीमियम श्रेणी का धान बनाती है।

ये किस्में केवल स्वाद और सुगंध के लिए ही नहीं, बल्कि किसानों की आय बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभा सकती हैं। इनका उत्पादन भले ही हाइब्रिड किस्मों की तुलना में कम हो, लेकिन बाजार में इनकी कीमत कहीं अधिक होती है

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