नेपाल के राजनीतिक इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया है। देश की पहली महिला सुप्रीम कोर्ट चीफ जस्टिस रह चुकीं सुशीला कार्की को शुक्रवार देर रात राष्ट्रपति ने अंतरिम प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई। इस नियुक्ति के साथ ही नेपाल ने 220 साल पुराने अपने इतिहास में पहली बार किसी महिला को प्रधानमंत्री पद पर देखा है। खास बात यह है कि उन्हें सत्ता की गलियारों से नहीं, बल्कि सड़कों पर आवाज उठाने वाले युवाओं—खासकर Gen-Z आंदोलनकारियों—की मांग पर यह पद मिला है।
महाभियोग प्रस्ताव आने के बाद सैकड़ों छात्र, महिलाएं और आम लोग काठमांडू की सड़कों पर उतर आए। सुप्रीम कोर्ट ने भी एक ऐतिहासिक आदेश देकर कहा कि जब तक महाभियोग की सुनवाई पूरी नहीं होती, तब तक सुशीला कार्की को काम करने से नहीं रोका जा सकता।जून 2017 में उनके रिटायरमेंट से सिर्फ एक दिन पहले संसद ने महाभियोग प्रस्ताव वापस ले लिया।
प्रचंड सरकार ने लाया महाभियोग प्रस्ताव
2017 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पुष्पकमल दाहाल ‘प्रचंड‘ की सरकार ने उनके खिलाफ संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया। उन पर आरोप लगाया गया कि वे न्यायपालिका की आज़ादी का गलत इस्तेमाल कर रही हैं और राजनीतिक फैसलों में हस्तक्षेप करती हैं। लेकिन असलियत यह थी कि नेताओं को डर था—अगर कार्की ने अपनी सख्ती जारी रखी, तो कई नेताओं और दलों की राजनीति संकट में पड़ सकती है।
ऐतिहासिक फैसले: सरोगेसी पर रोक
सुशीला कार्की कई हाई-प्रोफाइल मामलों के लिए जानी जाती हैं। 2015 में उन्होंने सरोगेसी (किराए की कोख) पर अहम फैसला सुनाया। उनकी बेंच ने कहा कि सरोगेसी को व्यवसाय नहीं बनने दिया जा सकता, क्योंकि इससे गरीब महिलाओं का शोषण हो रहा था। भारत में बैन लगने के बाद कई विदेशी कपल नेपाल आकर सरोगेसी कराते थे। अदालत के आदेश के बाद नेपाल में इस पर रोक लगी और सरकार को इसके लिए कानून बनाने की जिम्मेदारी मिली। इस कदम से नेपाल “सरोगेसी टूरिज्म” का गढ़ बनने से बच गया।
बता दें कि. सुशीला कार्की की प्रधानमंत्री पद तक की यात्रा सिर्फ उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह नेपाल के लोकतांत्रिक संघर्ष, जनता की ताकत और न्यायपालिका की स्वतंत्रता का प्रतीक भी है। उनकी कहानी से यह संदेश मिलता है कि न्याय, ईमानदारी और सच्चाई अंततः सत्ता से बड़ी होती है।
