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मुंबई। महाराष्ट्र की सियासत में मराठी-हिंदी की जंग ने आग लगा दी है। राज ठाकरे और निशिकांत दुबे के बीच जुबानी तलवारें मानो किसी जंग का ऐलान कर रही हों। एक तरफ एमएनएस का ठाकरे, मराठी मानूस का झंडा बुलंद किए, चिल्ला रहे हैं, “महाराष्ट्र में मराठी बोलो, वरना हिसाब होगा।” दूसरी तरफ बीजेपी के निशिकांत दुबे, झारखंड से ताल ठोकते हुए कहते हैं, “पटक-पटक के मारेंगे।” अरे, राज ठाकरे भी कहाँ चुप रहने वाले, पलट के बोले, “मुंबई के समंदर में डुबो-डुबो के मारेंगे।” बस, फिर क्या, दुबे ने तंज कसा, “अरे, तेरी हिंदी तो मैंने सिखाई।”

दरअसल ये तमाशा तब शुरू हुआ जब महाराष्ट्र में मराठी को लेकर एक दो बहसबाजी की घटनाएं सामने आईं। फिर सियासी बयानबाजी ने भी जोर पकड़ा। बस फिर क्या था राज ठाकरे, अपने पुराने अंदाज में, मराठी अस्मिता का ढोल पीट रहे हैं। कहते हैं, “यहाँ दुकानदार हो, रिक्शावाला हो, या कोई और, मराठी सीखो, वरना देख लेंगे।” उधर, दुबे ने आग में घी डाला, बोले, “मुंबई सिर्फ मराठियों की थोड़े है, हिंदी-उर्दू-तमिल सब बोलेंगे, तू क्या कर लेगा?” और फिर शुरू हुआ “पटक-पटक” बनाम “डुबो-डुबो” का सियासी ड्रामा

पिछले दिनों सरकार ने स्कूलों में हिंदी को तीसरी भाषा बनाने का फरमान सुनाया था, बस फिर क्या, मराठी गर्व का तूफान उठा। राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे, चचेरे भाइयों ने बीस साल बाद एक मंच पर आके जश्न मनाया, मानो मराठी ने कोई वर्ल्ड कप जीत लिया।

सरकार को पीछे हटना पड़ा, हिंदी का फरमान रद्द हुआ, लेकिन ये जंग थमी कहाँ?

अब दुबे कहते हैं, “मुंबई हम सबकी है, तुम ठाकरे लोग सस्ती सियासत कर रहे हो।” राज ठाकरे पलट के ताना मारते हैं, “हिंदी थोपने की कोशिश मत करो, वरना स्कूल-दुकान सब बंद करवा देंगे।” और बीच में जनता, चाय की टपरी पर बैठके बहस कर रही है—मराठी बोलें, हिंदी बोलें, या दोनों में तालमेल बैठाएँ?

तो भइया, ये सियासी नौटंकी अभी रुकेगी नहीं। राज ठाकरे का मराठी प्रेम और दुबे का हिंदी जोश, दोनों एक-दूसरे को पटकने-डुबाने की बात कर रहे हैं। अब देखना ये है कि ये जंग सियासत की स्क्रिप्ट में नया ट्विस्ट लाती है, या फिर चाय के साथ गपशप बनके रह जाती है! तुम बताओ, इस तमाशे में कौन सही, कौन गलत?

जिस दौर में हम जी रहे हैं वहां इस तरह की बहस के लिए कितनी जगह है ये चिंतन का विषय है अगर कोई हिंदी बोलता है तो कैसे दूसरी भाषा को इससे खतरा हो सकता है ये भी सोचने वाली बात है। ये बहस जब हिंसा का रूप ले लेती है तो स्थिति और भी चिंताजनक हो जाती है। हर कोई इस बात को देख और समझ रहा है मगर सियासी लाभ लेने की होड़ में सभी चुप्पी साधे हुए हैं। आगे जब मामला तूल पकड़ेगा राजनेता पीछे खड़े होकर तमाशा देखेगा और आम जनता का लहू बहेगा। इसलिए सभी को अपने विवेक से काम लेना चाहिए।

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