बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर जो तस्वीर सामने आई है, वह निराशाजनक है। वर्ष 2023 में संसद ने 106वां संविधान संशोधन पारित कर राजनीति में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण का प्रावधान किया था, लेकिन जब इस वादे को व्यवहार में उतारने की बारी आई, तो सियासी दलों ने कदम पीछे खींच लिए।
राजनीतिक दलों ने आधी आबादी की हिस्सेदारी को लेकर जो वादे किए थे, वे चुनावी मैदान में आते ही धुंधले पड़ गए। एनडीए और महागठबंधन — दोनों बड़े गठबंधनों ने मिलकर केवल 53 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया है। यह संख्या 243 विधानसभा सीटों के मुकाबले बेहद कम है, जो कुल सीटों का लगभग 22 प्रतिशत से भी कम है।
महागठबंधन में शामिल विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेलिनवादी) ने एक-एक महिला उम्मीदवार पर भरोसा जताया है। वहीं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी यानी माकपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) ने एक भी महिला उम्मीदवार नहीं दिया है।
एनडीए में भी सीमित भरोसा, 35 महिलाओं को मिला टिकट
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में भाजपा और जनता दल (यू) को 101–101 सीटें मिली हैं। दोनों ही दलों ने केवल 13–13 महिलाओं को टिकट दिया है — यानी लगभग 13 प्रतिशत हिस्सेदारी।
लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को 29 सीटें मिलीं, जिनमें से छह पर महिला उम्मीदवारों को मौका मिला।
हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) को छह सीटें मिलीं, जिनमें से दो पर महिलाओं को टिकट दिया गया। लेकिन दिलचस्प यह रहा कि इन दोनों सीटों पर पार्टी प्रमुख जीतन राम मांझी ने अपनी समधन ज्योति देवी और बहू दीपा मांझी को उम्मीदवार बनाया, न कि किसी सक्रिय महिला कार्यकर्ता को।
महागठबंधन में स्थिति और खराब, मात्र 18 महिलाओं को टिकट
महागठबंधन (I.N.D.I.A) की स्थिति इससे भी निराशाजनक है।
राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने मात्र 11 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया, जबकि कांग्रेस ने 5 महिलाओं को टिकट दिया।
विकासशील इंसान पार्टी (VIP) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) — सीपीआई (एमएल) — ने एक-एक महिला उम्मीदवार पर भरोसा जताया।
लेकिन माकपा (CPI-M) और भाकपा (CPI) ने एक भी महिला उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया।
इस तरह, पूरे महागठबंधन ने कुल मिलाकर 18 महिलाओं को ही टिकट दिया है।
यह तस्वीर उन महिलाओं के लिए निराशाजनक है जो राज्य के राजनीतिक परिदृश्य में सक्रिय भूमिका निभाने का सपना देखती हैं।
बिहार की महिलाएं हमेशा से चुनावों में मतदान प्रतिशत के मामले में पुरुषों से आगे रही हैं। 2020 विधानसभा चुनाव और 2019 लोकसभा चुनाव में भी महिला वोटरों का टर्नआउट पुरुषों से अधिक रहा था।
फिर भी, जब निर्णय लेने की बारी आती है, तो राजनीतिक दल महिलाओं को हाशिए पर धकेल देते हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बिहार जैसे राज्य में जहाँ महिलाओं की सामाजिक भागीदारी बढ़ी है, वहाँ राजनीतिक क्षेत्र में उनकी उपस्थिति इतनी सीमित होना चिंता का विषय है।
महिला आरक्षण कानून का प्रभाव अब तक सीमित
राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिए लाया गया महिला आरक्षण कानून (106वां संविधान संशोधन) अभी लागू नहीं हुआ है। इसके लिए जनगणना और परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होनी बाकी है।
विशेषज्ञों का कहना है कि जब तक यह आरक्षण विधिवत लागू नहीं होता, तब तक राजनीतिक दलों पर नैतिक जिम्मेदारी है कि वे अपने स्तर पर महिलाओं को समान अवसर दें।
लेकिन बिहार चुनाव में जो स्थिति बनी है, वह दर्शाती है कि दलों में महिलाओं को आगे लाने की इच्छाशक्ति अब भी कमजोर है।
बता दें कि, बिहार चुनाव एक बार फिर यह साबित करता है कि महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को लेकर दलों का दृष्टिकोण अब भी सीमित है।जहाँ सरकारें और नेता महिलाओं के सशक्तिकरण की बातें करते हैं, वहीं टिकट वितरण के समय वही महिलाएँ किनारे कर दी जाती हैं। जब तक पार्टियां अपने निर्णय तंत्र में महिलाओं को बराबरी से शामिल नहीं करेंगी, तब तक “एक-तिहाई आरक्षण” का सपना अधूरा ही रहेगा।
