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नई दिल्ली। भारत में शरणार्थियों की स्थिति और उनके अधिकारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक बेहद अहम और सख्त टिप्पणी की है। सोमवार को हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारत कोई “धर्मशाला” नहीं है, जहां पूरी दुनिया के शरणार्थियों को स्थान दिया जा सके। अदालत ने यह टिप्पणी एक श्रीलंकाई नागरिक की याचिका पर सुनवाई करते हुए की, जो भारत में शरण की मांग कर रहा था।

यह मामला एक बार फिर देश में शरणार्थी नीति, संविधानिक अधिकारों की सीमा और विदेशी नागरिकों के भारत में रहने के अधिकारों पर नई बहस को जन्म दे गया है। न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की दो सदस्यीय पीठ इस याचिका की सुनवाई कर रही थी।

याचिका का मूल आधार क्या था?

श्रीलंकाई नागरिक, जिसने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, को वर्ष 2015 में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) से जुड़े होने के संदेह में गिरफ्तार किया गया था। इसके बाद उसे हिरासत में रखा गया और भारत में उसके रहने पर कानूनी प्रश्न खड़े हुए। याचिकाकर्ता ने दावा किया कि वह श्रीलंका में गृह युद्ध के दौरान उत्पीड़न का शिकार हुआ और भारत में शरण लेना उसका मानवाधिकार है।

सुप्रीम कोर्ट की तीखी टिप्पणी

सुनवाई के दौरान अदालत ने यह साफ कर दिया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (जिसमें स्वतंत्रता के अधिकार दिए गए हैं) और अनुच्छेद 21 (जिसमें जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार शामिल है), केवल भारतीय नागरिकों पर लागू होते हैं, न कि विदेशी नागरिकों पर।

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने कहा:

“हमारा देश कोई धर्मशाला नहीं है। यह नहीं हो सकता कि कोई भी विदेश से आकर भारत में शरण मांगे और हम सबको स्वीकार करते जाएं। यह राष्ट्रीय सुरक्षा और संसाधनों के दुरुपयोग का मामला बन सकता है।”

क्या कहा संविधान ने?

भारतीय संविधान में नागरिकों और गैर-नागरिकों के अधिकारों को अलग-अलग दर्जा दिया गया है। अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) कुछ हद तक विदेशी नागरिकों पर लागू हो सकते हैं, लेकिन यह पूरी तरह न्यायिक विवेक पर निर्भर करता है कि किसी मामले में कौन-से अधिकार लागू होते हैं।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि कोई विदेशी भारत में प्रवेश करता है और कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं करता, तो उसे भारत में रहने का स्वाभाविक अधिकार नहीं मिल सकता।

शरणार्थियों की स्थिति और भारत की नीति

भारत में शरणार्थियों को लेकर कोई समर्पित शरणार्थी कानून (Refugee Law) नहीं है। भारत ने 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन और 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर भी नहीं किए हैं। इसके बावजूद, भारत ऐतिहासिक रूप से तिब्बती, श्रीलंकाई तमिल, अफगान, म्यांमार रोहिंग्या और अन्य शरणार्थियों को मानवीय आधार पर शरण देता रहा है।

तमिल शरणार्थियों का एक बड़ा तबका आज भी तमिलनाडु के शिविरों में रह रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में सरकार ने अवैध आप्रवास और सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए शरणार्थियों पर अधिक सख्त रवैया अपनाया है।

क्या अंतरराष्ट्रीय कानून कुछ कहता है?

अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार, शरणार्थियों को युद्ध, उत्पीड़न और मानवाधिकार उल्लंघन से बचने के लिए शरण दी जाती है। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) इस प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। लेकिन चूंकि भारत इसका औपचारिक हिस्सा नहीं है, इसलिए भारत सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाया गया यह दृष्टिकोण यह दर्शाता है कि भारत अब अपने संसाधनों और सुरक्षा प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए शरणार्थी मामलों को देख रहा है।

मानवाधिकार और नागरिक समाज की प्रतिक्रिया

मानवाधिकार संगठनों और नागरिक समाज के कुछ वर्गों ने इस टिप्पणी की आलोचना भी की है। उनका कहना है कि भारत, जो हमेशा मानवीय मूल्यों और शांति का समर्थक रहा है, इस प्रकार की टिप्पणियों से अपने वैश्विक दृष्टिकोण में कठोरता ला रहा है।

हालांकि, सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि विदेशी नागरिकों, खासकर उन पर संदेह हो जिन्हें आतंकवादी संगठनों से जोड़ा गया हो, उन्हें भारत में बनाए रखना देश की सुरक्षा के लिए जोखिम भरा हो सकता है।

आगे क्या?

सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस याचिका को खारिज किया जाना और की गई टिप्पणी भारत की भविष्य की शरणार्थी नीति की दिशा को दर्शाता है। सरकार के लिए यह एक संकेत भी है कि एक स्पष्ट और सुसंगत शरणार्थी नीति की आवश्यकता अब और भी बढ़ गई है।

जहाँ एक ओर मानवीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है, वहीं राष्ट्रीय सुरक्षा और संसाधनों के प्रबंधन का संतुलन बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है।


निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट की यह सख्त टिप्पणी केवल एक याचिका तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आने वाले समय में शरणार्थियों की स्थिति और भारत की नीतियों को लेकर व्यापक प्रभाव डाल सकती है। ऐसे में आवश्यक है कि इस संवेदनशील विषय पर संतुलित और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाए, जिससे भारत की मानवीय पहचान और राष्ट्रीय हित दोनों सुरक्षित रहें।

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