वैसे तो भारवर्ष के हर समाज में बेटियों को देवी तुल्य मानकर उन्हें पूजा जाता है। वहीं बेटियों को देवी स्वरूप मानने वाले भोजवंशी समाज में बेटियों के सम्मान में भुजलिए बोये जाने की अनोखी और प्रकृति से जोड़े रखने वाली परम्परा है। जैसे हमारे हिंदू धर्म में देवियों के दरबार में जवारे और पवारों के अवार में भुजलिया बोई जाती है।
बेटियों के सम्मान में बोई जाती है भुजलिया
भुजलिए कुंवारी बेटियों के सम्मान में बोने की परंपरा है। विवाह होने पर आखरी बार बेटी के सम्मान में मायके में भुजलिया बोई जाती है जिनके विसर्जन अनुष्ठान को “भुजलिए उजाना” कहा जाता है। चूंकि विवाह बाद बेटी का गोत्र बदल जाता है, अतः परिवार में उसके नाम से अब भुजलिए बोए जाना निषिद्ध हो जाता है। जिस भी बेटी की भुजलिया उजाई जाती है वो अपने मायके आती है, अच्छा इस बार वो अपने ससुराल वालों या पति के साथ नहीं आती है बल्कि मायके पक्ष के लोग मेहमान बनकर जाते हैं और फिर बेटी को लेकर अपने घर लौटते हैं। जहां पहले राखी और फिर भुजलिया का पर्व पूरे विधि विधान के साथ मनाया जाता है।
भुजलिया का जवारे की तरह विसर्जन नहीं होता है
भुजलिए गणेश प्रतिमा या दुर्गा प्रतिमा की तरह नदी, सरोवरों में सिराए नहीं जाते हैं। अपितु उन्हें खोट कर (जड़ों से ऊपर का हिस्सा पानी से धोकर) टोकनी में रखकर घर वापस लाए जाने का विधान है। घर- परिवार के सदस्य इन भुजलियों को एक दूसरे को खोंस कर परस्पर प्रेम, सम्मान और सौहार्द्र बनाए रखने के लिए दृढ़ संकल्पित होते हैं। पुरानी रंजिशें और मन मुटाव भूलाकर व्यक्ति स्वस्थ और सरल मन से शेष जीवन जीने के लिए प्रतिबद्ध होता है। तीज- त्योहार जीवन को पूरे जिंदादिली से जीने के जोश से भरने और जीवन को समृद्ध और परिपूर्ण करने में सहायक होते हैं।
इस अवसर पर जिस बिटिया के बाहुड़ला उजाए जाते हैं वह अपनी बुआ, काकी, मामी, ताई आदि को बांस की टोकरियाँ भेंट करती है जिसके बदले में बुआ, काकी, मामी, ताई आदि उसके स्वस्थ, सुखी, सम्पन्न वैवाहिक जीवन की कामना करते हुए बदले में आशीर्वाद स्वरूप दान दक्षिणा देती है। बांस की टोकरी बुनने वाले कारीगरों की भारतीय संस्कृति में बड़ी ही समझदारी से व्यवस्था कर दी गई है।
आल्हा खंड में उदल और आल्हा की वीरता और शौर्य को चित्रित किया गया है, जिसमें वे सरोवर पर भुजलिए लेकर गई बहन के अपहरण करने आए राजा का सामना पूरी बहादुरी से करते हैं। भाई द्वारा बहन की रक्षा करने का यह प्रसंग आगे चलकर परम्परा बन गया। बुंदेलखंड में आज भी घर -घर आल्हा का वाचन करने और भुजलिए बोने का प्रचलन है।
आपसी बैर मिटाकर गले लगने का पर्व है भुजलिया
भुजलिया का पर्व पवार समाज में बड़े ही प्रेम और सद्भाव के साथ मनाया जाता है। अगर आपस में दुश्मनी भी है तो इस दिन एक दूसरे को भुजलिया आदान प्रदान कर बैर को मिटाया जाता है। और फिर दोबारा से बोलचाल शुरू हो जाता है। रिश्ते को करीब से समझने का ये बेहद खास पर्व माना जाता है जिसमें बच्चे अपनी संस्कृति को करीब से देखते हैं और समझते हैं। अगर घर में बच्चे हैं तो वो अपने से बड़ों के पैर छूकर भुजलिया देते हैं इसी तरह बड़े भी अपने रिश्ते के अनुसार परंपरा का निर्वहन कर भुजलिया का पर्व मनाते हैं।
भुजलिया का वैज्ञानिक महत्व
भुजलिया का वैज्ञानिक महत्व भी है। स्वस्थ और सरस भुजलिए उगने पर किसान अपने भंडार गृह का गेहूँ अपनी आवश्यकतानुसार बेचने निकाल देता है। भुजलिए खंडित और अस्वस्थ उगने पर किसान फसल ठीक न होने के अनुमान अनुसार अपने भंडार गृह का गेहूँ सुरक्षित रखा रहता है।
गाँव से शहर आई पीढ़ी और शहर में जन्मी पीढ़ी को अपनी जड और जमीन से जोड़ने का जो प्रयास समाज सदस्यों द्वारा और समाज संगठनों द्वारा किया जाने लगा है उससे नई पीढ़ी अपने तीज त्योहार और संस्कृति से परिचित हो सकेंगे।
तथ्य सामग्री संकलन : सुखवाड़ा ई दैनिक और मासिक भारत